Wednesday, April 21, 2021

द्रौपदी

 यज्ञ से जन्मी, थी यज्ञसैनी मैं ,

पिता को चाहत थी पुत्र की ,

उस ईनाम के साथ खैरात में थी आई मैं | 

द्रुपद के घर थी जन्मी, द्रौपदी कहलाई मैं ,

पांडवो से विवाह किया, वेहशिया भी कहाई मैं | 

मित्रता मिली कृष्ण की, 

जिसने अर्जुन के दिखाए ख्वाब मुझे, 

कर्ण को भी ठुकरा दिया कहने पर जिसके मैंने | 

कुंती ने जबान दे दि , कहा बाँट लो मुझे ,

धर्म कि रक्षा के लिए चढ़ा दिया बलि मुझे | 

मेरा मुझ पर ही हक ना रहा, पति ने हक जताया था ,

जुए में दाँव पर लगा कर, मेरा गौरव मिट्टी में मिलाया था | 

बालों से घसिटी गई , हाँथ भी उठाया था ,

दुष्ट दुशासन से फिर वही हाँथ मेरे वस्त्र की ओर बढ़ाया था | 

अपना आँचल फाड़ कर कृष्ण के जखम पर लगाया था ,

उसी आँचल से फिर कृष्णा ने मेरा चीर बढ़ाया था | 

चींखी, चिलाई, इंसाफ के लिए गुहार लगाई ,

मगर पुरुषों की भरी सभा ने मुझ पर ही थी ऊँगली उठाई | 

पाँच पांडवो से सम्बंध रखने वाली स्त्री कहलाई ,

द्रौपदी, पांचाली, साम्रगी होकर भी मैं सिर्फ वेहशिया ही कहाई | 

पवित्र होकर भी अपवित्र समझी गई मैं ,

लालच पुरुषों का था, मगर तवाईफ़ समझी गई मैं 

क्रोध का ज्वाला भड़क उठा, था टुटा सबर मेरा ,

गांधारी ने जो न रोका होता, भरी सभा को श्राप मेरा के देता स्वाहा | 

खैरात में आऊ ,

द्रौपदी कहलाऊ ,

पांचाली बन जाऊ ,

पांडवों से विवाह रचाऊ ,

वेहशिया कहाऊ ,

दासी बन जाऊ ,

बेइज़्जत हो जाऊ ,

इज़्जत गवाऊ ,

चीर हरण सह जाऊ ,

सबर का घूँट पी जाऊ ,

और धर्म भी मैं ही बचाऊ | 

और आज भी कुछ लोग कहते है, महाभारत का युद्ध द्रौपदी ने कराया था ,

मैं तो सिर्फ जरिया थी, धर्म का डंका तो कृष्णा ने बजाया था | 

दुर्योधन का लालच था, युधिष्ठिर धर्मराज कहलाया था ,

कोरवो और पांडवों के बीच युद्ध का मोहरा मुझे कृष्णा ने बनाया था | 

मित्र ने ही मित्र का जीवन दाँव पर लगा दिया ,

कृष्णा ने मेरा बलिदान देकर धर्म स्थापित करा लिया | 

गीता का ज्ञान बाँट दिया युद्ध के मैदान में ,

धर्म भी सीखा दिया कौरवो के विध्वंस से | 

पर आज मेरा अस्तित्व क्या है ,

जो है वो कृष्णा है ,

गीता का ज्ञान अजर है ,

पर मेरा योगदान भी अमर है ,

आखिर द्रौपदी हूँ मैं ,

मुझ में ही महाभारत हैं | 


                                    - प्रेरणा राठी 





Saturday, April 10, 2021

उलझन - 2

 पल -पल बिखर रहा है दिल,

रूह भी तड़प रही है तिल -तिल | 

लगता है अंदर कुछ बचा ही नहीं,

पर ये जिस्म बेदर्द पिघलता ही नहीं| 

सांस हम ले नहीं पाते,

और जिंदगी हमे छोड़ती नहीं| 

दुनिया से हम जुड़ नहीं पाते,

और रिश्तो की डोरी छूटती नहीं| 


                      - प्रेरणा राठी         

क्या खोज रहा हूँ

दर्द-ए-दिल की दवा नहीं, जबाँ खोज रहा हूँ, सही गलत तू देख लेना, तालीम की राह खोज रहा हूँ|  शायर हू, शायरी नहीं आशिक़ी खोज रहा हूँ, बरसांते तो ...