यज्ञ से जन्मी, थी यज्ञसैनी मैं ,
पिता को चाहत थी पुत्र की ,
उस ईनाम के साथ खैरात में थी आई मैं |
द्रुपद के घर थी जन्मी, द्रौपदी कहलाई मैं ,
पांडवो से विवाह किया, वेहशिया भी कहाई मैं |
मित्रता मिली कृष्ण की,
जिसने अर्जुन के दिखाए ख्वाब मुझे,
कर्ण को भी ठुकरा दिया कहने पर जिसके मैंने |
कुंती ने जबान दे दि , कहा बाँट लो मुझे ,
धर्म कि रक्षा के लिए चढ़ा दिया बलि मुझे |
मेरा मुझ पर ही हक ना रहा, पति ने हक जताया था ,
जुए में दाँव पर लगा कर, मेरा गौरव मिट्टी में मिलाया था |
बालों से घसिटी गई , हाँथ भी उठाया था ,
दुष्ट दुशासन से फिर वही हाँथ मेरे वस्त्र की ओर बढ़ाया था |
अपना आँचल फाड़ कर कृष्ण के जखम पर लगाया था ,
उसी आँचल से फिर कृष्णा ने मेरा चीर बढ़ाया था |
चींखी, चिलाई, इंसाफ के लिए गुहार लगाई ,
मगर पुरुषों की भरी सभा ने मुझ पर ही थी ऊँगली उठाई |
पाँच पांडवो से सम्बंध रखने वाली स्त्री कहलाई ,
द्रौपदी, पांचाली, साम्रगी होकर भी मैं सिर्फ वेहशिया ही कहाई |
पवित्र होकर भी अपवित्र समझी गई मैं ,
लालच पुरुषों का था, मगर तवाईफ़ समझी गई मैं
क्रोध का ज्वाला भड़क उठा, था टुटा सबर मेरा ,
गांधारी ने जो न रोका होता, भरी सभा को श्राप मेरा के देता स्वाहा |
खैरात में आऊ ,
द्रौपदी कहलाऊ ,
पांचाली बन जाऊ ,
पांडवों से विवाह रचाऊ ,
वेहशिया कहाऊ ,
दासी बन जाऊ ,
बेइज़्जत हो जाऊ ,
इज़्जत गवाऊ ,
चीर हरण सह जाऊ ,
सबर का घूँट पी जाऊ ,
और धर्म भी मैं ही बचाऊ |
और आज भी कुछ लोग कहते है, महाभारत का युद्ध द्रौपदी ने कराया था ,
मैं तो सिर्फ जरिया थी, धर्म का डंका तो कृष्णा ने बजाया था |
दुर्योधन का लालच था, युधिष्ठिर धर्मराज कहलाया था ,
कोरवो और पांडवों के बीच युद्ध का मोहरा मुझे कृष्णा ने बनाया था |
मित्र ने ही मित्र का जीवन दाँव पर लगा दिया ,
कृष्णा ने मेरा बलिदान देकर धर्म स्थापित करा लिया |
गीता का ज्ञान बाँट दिया युद्ध के मैदान में ,
धर्म भी सीखा दिया कौरवो के विध्वंस से |
पर आज मेरा अस्तित्व क्या है ,
जो है वो कृष्णा है ,
गीता का ज्ञान अजर है ,
पर मेरा योगदान भी अमर है ,
आखिर द्रौपदी हूँ मैं ,
मुझ में ही महाभारत हैं |
- प्रेरणा राठी
Well done kuch naya likha hai
ReplyDeleteThank you 😊
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